कुँअर बेचैन

धड़कनें चुप हैं, अधर मौन, निगाहें ख़ामोश
ज़िंदगी और तुझे कैसे पुकारा जाए

अज्ञात

बदन के घाव दिखला कर जो अपना पेट भरता है
सुना है वो भिखारी ज़ख़्म भर जाने से डरता है

कुँअर बेचैन

उसने फेंके मुझपे पत्थर और मैं पानी की तरह
और ऊँचा, और ऊँचा, और ऊँचा उठ गया

नदीम शाहाबादी

लहूलुहान थे मुझको तराशने वाले
मैं एक सच था तो चेहरा मिरा बदलता क्या

कृष्ण बिहारी नूर

ज़िंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं
और क्या ज़ुर्म है पता ही नहीं
इतने हिस्सों में बँट गया हूँ मैं
मिरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं
जड़ दो चांदी में चाहे सोने में
आईना झूठ बोलता ही नहीं
सच घटे या बढ़े तो सच न रहे
झूठ की कोई इंतिहा ही नहीं

परवीन शाक़िर

बिछड़ा है जो इक बार तो मिलते नहीं देखा
इस जख़्म को हमने कभी सिलते नहीं देखा
इस बार जिसे चाट गई धूप की ख़्वाहिश
उस शाख पे फिर फूल को खिलते नहीं देखा
यक लख्त गिरा है तो जड़े तक निकल आईं
जिस पेड़ को आंधी में भी हिलते नहीं देखा
काँटों में घिरे फूल को चूम आयेगी तितली
तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा
किस तरह मिरी रूह हरी कर गया आख़िर
वो ज़हर जिसे जिस्म में खिलते नहीं देखा

अज्ञात

मंज़िल तो ख़ुशनसीबों में तक़सीम हो गई
हम जैसे ख़ुशख़याल अभी तक सफ़र में हैं

बशीर बद्र

दुश्मनी का सफ़र इक क़दम, दो क़दम
तुम भी थक जाओगे, हम भी थक जाएंगे
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