परवीन शाक़िर

उसी तरह से हर इक ज़ख़्म ख़ुशनुमा देखे
वो आए तो मुझे अब भी हरा-भरा देखे
गुज़र गये हैं बहुत दिन रिफ़ाक़ते-शब में
इक उम्र हो गयी चेहरा वो चांद-सा देखे
मिरे सुकूत से जिसको गिले रहे क्या-क्या
बिछड़ते वक़्त उन आँखों का बोलना देखे
तिरे सिवा भी कई रंग ख़ुशनज़र थे मगर
जो तुझको देख चुका हो वो और क्या देखे
बस एक रेत का ज़र्रा बचा था आँखों में
अभी तलक जो मुसाफ़िर का रास्ता देखे
उसी से पूछे कोई दश्त की रफ़ाकत जो
जब आँख खोले पहाड़ों का सिलसिला देखे
तुझे अज़ीज़ था और मैंने उसको जीत लिया
मेरी तरफ़ भी तो इक पल मिरा ख़ुदा देखे

परवीन शाक़िर

अक़्स-ए-ख़ुशबू हूँ बिखरने से न रोके कोई
और बिखर जाऊँ तो मुझको न समेटे कोई
काँप उठती हूँ मैं ये सोच के तनहाई में
मेरे चेहरे पे तिरा नाम न पढ़ ले कोई
जिस तरह ख़्वाब मेरे हो गए रेज़ा-रेज़ा
इस तरह से न कभी टूट के बिखरे कोई
अब तो इस राह से वो शख़्स गुज़रता भी नहीं
अब किस उम्मीद पे दरवाजे से झाँके कोई
कोई आहट, कोई आवाज़, कोई छाप नहीं
दिल की गलियाँ बड़ी सुनसान हैं आए कोई

अज्ञात

मांगत-मांगत मान घटे अरु प्रीत घटे नित के घर जाईं
ओछे की संग तें बुद्धि घटे अरु क्रोध घटे मह के समझाईं

निश्तर ख़ानख़ाही

कहाँ तक उसके रवैये प्र नुक्ता-चीनी अब
बदल सकूँ तो ख़ुद अपना मामला बदलूँ

सुनीता जैन

जाने कब शाम हो जाए
प्रणाम यह, अंतिम प्रणाम हो जाए

मैं स्वीकार करती हूँ
कि तुमसे
तुम्हारे सलोनेपन
तुम्हारे मन की गहराई
तुम्हारे भीतर के आलोक से
बावरी हदों तक
प्यार करती हूँ

मेरे पास कुछ भी नहीं है सफ़ाई
न अपने हल्के पलड़े पर
रखने का बाट कोई
फिर भी याद है
कि जब याद से भी छोटे पाँव थे
मैं खो जाया करती थी
नहर किनारे बाग़ में

तुम पूछतीं
कहाँ गई थी?
तब भी मेरे तोतले बोलों में नहीं थी
कोई सफ़ाई
आज कह रही मैं कि, माँ
मैं ढूंढती थी तब भी तुम्हें
तुम्हें, तुम्हें ही।

दरवेश भारती

ये मत समझना कि दूरी से हार जाएगी
नज़र उठी तो सितारों के पार जाएगी
ज़माना ऐश करेगा फ़रेब के दम पर
हमें ख़ुलूस की बीमारी मार जाएगी

मुनि क्षमासागर

चिड़िया
भीग जाती है
जब बारिश आती है
नदी
भर जाती है
जब बारिश आती है
धरती
गीली हो जाती है

पर बहुत मुश्क़िल है
इस तरह
आदमी का
भीगना और
भर पाना

आदमी के पास
बचने का 
उपाय है ना!

अज्ञात

सवाल ये नहीं कि टूटा या बचा शीशा
सवाल ये है कि पत्थर किधर से आया था

धूमिल

हर चेहरे पर डर लटका है
घर बाहर अवसाद है
गाँव नहीं यह नर्क क्षेत्र का
भोजपुरी अनुवाद है

अज्ञात

मेरी तबाही का इलज़ाम अब शराब पे है
मैं और करता भी क्या, तुम पे आ रही थी बात
विजेट आपके ब्लॉग पर