कवियों की दूरभाष निर्देशिका

नमस्कार जी!

देश भर के कवियों की एक दूरभाष निर्देशिका बनाने का विचार 'राष्ट्रीय कवि संगम' के मन में है। आपसे अनुरोध है कि आप अपना और अपने संपर्क के सभी कवियों के विषय में निम्न जानकारी यथाशीघ्र प्रेषित करें। कोई भी रचनाकार जो कविता लिखता है, वह हमारी निर्देशिका का अंग होगा। भाषा, जाति, प्रदेश अथवा अन्य किसी भी प्रकार का भेद-भाव निर्देशिका के संदर्भ में नहीं किया जाएगा। यदि किसी रचनाकार की संपूर्ण जानकारी आपके पास उपलब्ध नहीं है तो कृपया कवि/कवयित्री का दूरभाष हम तक पहुँचा दें। समय की कमी के चलते कृपया इस सप्ताह में इस कार्य को सम्पन्न करें, हमारा लक्ष्य है कि आगामी 3 जनवरी को इस निर्देशिका का लोकार्पण किया जाए।


आपको जो जानकारी हम तक पहुँचानी है वह निम्नलिखित है-


कवि का नाम-
स्थायी पता-
डाक पता-
दूरभाष (निवास)-
मोबाइल-
जन्मतिथि-
लेखन की भाषा-
ईमेल-
वेबसाइट / ब्लॉग-


उपरोक्त जानकारी आप हमें निम्न सूत्रों पर प्रेशित कर सकते हैं-

डाक द्वारा- चिराग़ जैन, एच-24, पॉकेट ए, आई एन ए कॉलोनी, नई दिल्ली- 110023
मोबाइल- 9868573612, 9810089088, 9810462721
ईमेल- chiragblog@gmail.com

अल्हड़ बीकानेरी

ख़ुद पे हँसने की कोई राह निकालूँ तो हँसूँ
अभी हँसता हूँ ज़रा मूड में आ लूँ तो हँसूँ

जिनकी साँसों में कभी गंध न फूलों की बसी
शोख़ कलियों पे जिन्होंने सदा फब्ती ही कसी
जिनकी पलकों के चमन में कोई तितली न फँसी
जिनके होंठों पे कभी भूले से आई न हँसी
ऐसे मनहूसों को जी भर के हँसा लूँ तो हँसूँ

अल्हड़ बीकानेरी

आप जितना भी चाहें बिगड़ लीजिये
दोष हम पर ज़माने का मढ़ लीजिये
हम हैं पुस्तक खुली हमको पढ़ लीजिये
अपने ऐबों को ढँकने की आदत नहीं

कुँअर बेचैन

धड़कनें चुप हैं, अधर मौन, निगाहें ख़ामोश
ज़िंदगी और तुझे कैसे पुकारा जाए

अज्ञात

बदन के घाव दिखला कर जो अपना पेट भरता है
सुना है वो भिखारी ज़ख़्म भर जाने से डरता है

कुँअर बेचैन

उसने फेंके मुझपे पत्थर और मैं पानी की तरह
और ऊँचा, और ऊँचा, और ऊँचा उठ गया

नदीम शाहाबादी

लहूलुहान थे मुझको तराशने वाले
मैं एक सच था तो चेहरा मिरा बदलता क्या

कृष्ण बिहारी नूर

ज़िंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं
और क्या ज़ुर्म है पता ही नहीं
इतने हिस्सों में बँट गया हूँ मैं
मिरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं
जड़ दो चांदी में चाहे सोने में
आईना झूठ बोलता ही नहीं
सच घटे या बढ़े तो सच न रहे
झूठ की कोई इंतिहा ही नहीं

परवीन शाक़िर

बिछड़ा है जो इक बार तो मिलते नहीं देखा
इस जख़्म को हमने कभी सिलते नहीं देखा
इस बार जिसे चाट गई धूप की ख़्वाहिश
उस शाख पे फिर फूल को खिलते नहीं देखा
यक लख्त गिरा है तो जड़े तक निकल आईं
जिस पेड़ को आंधी में भी हिलते नहीं देखा
काँटों में घिरे फूल को चूम आयेगी तितली
तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा
किस तरह मिरी रूह हरी कर गया आख़िर
वो ज़हर जिसे जिस्म में खिलते नहीं देखा

अज्ञात

मंज़िल तो ख़ुशनसीबों में तक़सीम हो गई
हम जैसे ख़ुशख़याल अभी तक सफ़र में हैं

बशीर बद्र

दुश्मनी का सफ़र इक क़दम, दो क़दम
तुम भी थक जाओगे, हम भी थक जाएंगे

परवीन शाक़िर

उसी तरह से हर इक ज़ख़्म ख़ुशनुमा देखे
वो आए तो मुझे अब भी हरा-भरा देखे
गुज़र गये हैं बहुत दिन रिफ़ाक़ते-शब में
इक उम्र हो गयी चेहरा वो चांद-सा देखे
मिरे सुकूत से जिसको गिले रहे क्या-क्या
बिछड़ते वक़्त उन आँखों का बोलना देखे
तिरे सिवा भी कई रंग ख़ुशनज़र थे मगर
जो तुझको देख चुका हो वो और क्या देखे
बस एक रेत का ज़र्रा बचा था आँखों में
अभी तलक जो मुसाफ़िर का रास्ता देखे
उसी से पूछे कोई दश्त की रफ़ाकत जो
जब आँख खोले पहाड़ों का सिलसिला देखे
तुझे अज़ीज़ था और मैंने उसको जीत लिया
मेरी तरफ़ भी तो इक पल मिरा ख़ुदा देखे

परवीन शाक़िर

अक़्स-ए-ख़ुशबू हूँ बिखरने से न रोके कोई
और बिखर जाऊँ तो मुझको न समेटे कोई
काँप उठती हूँ मैं ये सोच के तनहाई में
मेरे चेहरे पे तिरा नाम न पढ़ ले कोई
जिस तरह ख़्वाब मेरे हो गए रेज़ा-रेज़ा
इस तरह से न कभी टूट के बिखरे कोई
अब तो इस राह से वो शख़्स गुज़रता भी नहीं
अब किस उम्मीद पे दरवाजे से झाँके कोई
कोई आहट, कोई आवाज़, कोई छाप नहीं
दिल की गलियाँ बड़ी सुनसान हैं आए कोई

अज्ञात

मांगत-मांगत मान घटे अरु प्रीत घटे नित के घर जाईं
ओछे की संग तें बुद्धि घटे अरु क्रोध घटे मह के समझाईं

निश्तर ख़ानख़ाही

कहाँ तक उसके रवैये प्र नुक्ता-चीनी अब
बदल सकूँ तो ख़ुद अपना मामला बदलूँ

सुनीता जैन

जाने कब शाम हो जाए
प्रणाम यह, अंतिम प्रणाम हो जाए

मैं स्वीकार करती हूँ
कि तुमसे
तुम्हारे सलोनेपन
तुम्हारे मन की गहराई
तुम्हारे भीतर के आलोक से
बावरी हदों तक
प्यार करती हूँ

मेरे पास कुछ भी नहीं है सफ़ाई
न अपने हल्के पलड़े पर
रखने का बाट कोई
फिर भी याद है
कि जब याद से भी छोटे पाँव थे
मैं खो जाया करती थी
नहर किनारे बाग़ में

तुम पूछतीं
कहाँ गई थी?
तब भी मेरे तोतले बोलों में नहीं थी
कोई सफ़ाई
आज कह रही मैं कि, माँ
मैं ढूंढती थी तब भी तुम्हें
तुम्हें, तुम्हें ही।

दरवेश भारती

ये मत समझना कि दूरी से हार जाएगी
नज़र उठी तो सितारों के पार जाएगी
ज़माना ऐश करेगा फ़रेब के दम पर
हमें ख़ुलूस की बीमारी मार जाएगी

मुनि क्षमासागर

चिड़िया
भीग जाती है
जब बारिश आती है
नदी
भर जाती है
जब बारिश आती है
धरती
गीली हो जाती है

पर बहुत मुश्क़िल है
इस तरह
आदमी का
भीगना और
भर पाना

आदमी के पास
बचने का 
उपाय है ना!

अज्ञात

सवाल ये नहीं कि टूटा या बचा शीशा
सवाल ये है कि पत्थर किधर से आया था

धूमिल

हर चेहरे पर डर लटका है
घर बाहर अवसाद है
गाँव नहीं यह नर्क क्षेत्र का
भोजपुरी अनुवाद है

अज्ञात

मेरी तबाही का इलज़ाम अब शराब पे है
मैं और करता भी क्या, तुम पे आ रही थी बात

कृष्ण गोपाल विद्यार्थी

आपसे प्यार हो गया कैसे
ये चमत्कार हो गया कैसे
प्यार को मैं गुनाह कहता था
मैं गुनाहगार हो गया कैसे

बालस्वरूप राही

कटीले शूल भी दुलरा रहे है पाँव को मेरे
कहीं तुम पंथ पर पलकें बिछाए तो नहीं बैठीं

हवाओं में न जाने आज क्यों कुछ-कुछ नमी सी है
डगर की उष्णता में भी न जाने क्यों कमी सी है
गगन पर बदलियाँ लहरा रहीं हैं श्याम-आँचल सी
कहीं तुम नयन में सावन छिपाए तो नहीं बैठीं

अमावस की दुल्हन सोयी हुई है अवनि से लगकर
न जाने तारिकायें बाट किसकी जोहतीं जगकर
गहन तम है डगर मेरी मगर फिर भी चमकती है
कहीं तुम द्वार पर दीपक जलाए तो नहीं बैठीं

हुई कुछ बाट ऎसी फूल भी फीके पड़े जाते
सितारे भी चमक पर आज तो अपनी न इतराते
बहुत शरमा रहा है बदलियों की ओट में चन्दा
कहीं तुम आँख में काजल लगाए तो नहीं बैठीं

नागार्जुन

कालिदास! सच-सच बतलाना
इंदुमती के मृत्यु शोक से
अज रोया या तुम रोये थे
कालिदास! सच-सच बतलाना

शिवजी की तीसरी आँख से
निकली हुई महाज्वाला से
घृतमिश्रित सूखी समिधा सम
कामदेव जब भस्म हो गया
रति का क्रंदन सुन आँसू से
तुमने ही तो दृग धोये थे
कालिदास! सच-सच बतलाना
रति रोयी या तुम रोये थे?

वर्षा ऋतु की स्निग्ध भूमिका
प्रथम दिवस आषाढ़ मास का
देख गगन में श्याम घन-घटा
विधुर यक्ष का मन जब उचटा
खड़े-खड़े जब हाथ जोड़कर
चित्रकूट के सुभग शिखर पर
उस बेचारे ने भेजा था
जिनके द्वारा ही संदेशा
उन पुष्करावर्त मेघों का
साथी बनकर उड़ने वाले
कालिदास! सच-सच बतलाना
पर पीड़ा से पूर-पूर हो
थक-थक कर और चूर-चूर हो
अमल-धवल गिरि के शिखरों पर
प्रियवर! तुम कब तक सोये थे?
रोया यक्ष या तुम रोये थे?
कालिदास! सच-सच बतलाना

राम अवतार त्यागी

आने पर मेरे बिजली-सी कौंधी सिर्फ तुम्हारे दृग में
लगता है जाने पर मेरे सबसे अधिक तुम्हीं रोओगे

मैं आया तो चारण जैसा
गाने लगा तुम्हारा आँगन
हंसता द्वार, चहकती ड्योढी
तुम चुपचाप खड़े किस कारण
मुझको द्वारे तक पहुंचाने
सब तो आये तुम्हीं न आये
लगता है एकाकी पथ पर
मेरे साथ तुम्हीं होओगे

मौन तुम्हारा प्रश्न-चिन्ह है
पूछ रहे शायद कैसा हूँ
कुछ-कुछ चातक से मिलता हूँ
कुछ-कुछ बादल के जैसा हूँ
मेरा गीत सुना सब जागे
तुमको जैसे नींद आ गयी
लगता मौन प्रतीक्षा में तुम
सारी रात नहीं सोओगे

तुमने मुझे अदेखा करके
संबंधों की बात खोल दी
सुख के सूरज की आँखों में
काली-काली रात घोल दी
कल को यदि मेरे आँसू की
मंदिर में पड़ गयी ज़रूरत
लगता है आँचल को अपने
सबसे अधिक तुम्हीं धोओगे

परिचय से पहले ही बोलो
उलझे किस ताने-बाने में
तुम शायद पथ देख रहे थे
मुझको देर हुई आने में
जग भर ने आशीष उठाये
तुमने कोई शब्द न भेजा
लगता तुम भी मन की बगिया में
गीतों का बिरवा बोओगे

गोपालदास नीरज

स्वप्न झरे फूल से
मीत चुभे शूल से
लुट गए सिंगार सभी बाग़ के बबूल से
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गयी
पाँव जब तलक उठें कि ज़िन्दगी फिसल गयी
पात-पात झर गए कि शाख-शाख जल गयी
चाह तो सकी निकल न पर उमर निकल गयी
गीत अश्क़ बन गए
छंद हो दफ़न गए
साथ के सभी दिए, धुआँ-धुआँ पहन गए
और हम झुके-झुके
मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे

क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा
क्या सरूप था कि देख आइना सिहर उठा
इस तरफ़ ज़मीन और आसमां उधर उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा
एक दिन मगर यहाँ
ऐसी कुछ हवा चली
लुट गयी कली-कली कि घुट गयी गली-गली
और हम लुटे-लुटे
वक़्त से पिटे-पिटे
साँस की शराब का खुमार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे

हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की संवार दूं
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूं
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूं
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमि पर उतार दूं
हो सका न कुछ मगर
शाम बन गयी सहर
वह उठी लहर कि ढह गए किले बिखर-बिखर
और हम डरे-डरे
नीर नयन में भरे
ओढ़कर कफ़न पड़े मज़ार देखते रहे
कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे

माँग भर चली कि एक जब नयी-नयी किरण
ढोलकें ढुमुक उठीं ठुमुक उठे चरण-चरण
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन
गाँव सब उमड़ पडा बहक उठे नयन-नयन
पर तभी ज़हर भारी
गाज एक वह गिरी
पुंछ गया सिन्दूर तार-तार हुई चूनरी
और हम अजान से
दूर के मकान से
पालकी लिए हुए कहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे
विजेट आपके ब्लॉग पर