बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'

कवि कुछ ऎसी तान सुनाओ
जिससे उथल-पुथल मच जाये
एक हिलोर इधर से आये
एक हिलोर उधर से आये

मीर

शाम से ही बुझा सा रहता है
दिल हुआ है चिराग़ मुफ़लिस का

दुष्यंत कुमार त्यागी

घंटियों की गूँज कानों तक पहुँचती है
इक नदी जैसे दहानों तक पहुँचती है
अब इसे क्या नाम दें ये बेल देखो तो
कल उगी थी आज शानों तक पहुँचती है

नोमानी

इस सादगी पे कौन न मर जाये ऐ खुदा
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं

गोपालदास नीरज

इतने बदनाम हुए हम तो इस ज़माने में
तुमको लग जाएंगीं सदियाँ हमें भुलाने में
न तो पीने का सलीका न पिलाने का सुहूर
ऐसे ही लोग चले आये हैं मयखाने में
आज भी उसके लिए होतीं हैं पागल कलियाँ
जाने क्या बात है नीरज के गुनगुनाने में

नदीम नैयर

बाद में बेचता है अपनी दवाएं क़ातिल
पहले हर शख्स को बीमार किया जाता है
झूठ की आज हुकूमत है ज़माने भर में
जो भी सच्चा है वो बर्बाद किया जाता है

गोपालदास नीरज

कांपती लौ, ये स्याही, ये धुआं, ये काजल
उम्र सब अपनी इन्हें गीत बनाने में कटी
कौन समझे मेरी आँखों की नमी का मतलब
जिंदगी गीत थी पर जिल्द बंधाने में कटी

आसिफ

उसे दरकार हैं सजदे भी मेरे, मेरा सर भी उड़ाना चाहता है
चिरागों की हिफाज़त करने वाला, हवाएं भी चलाना चाहता है
तेरी बख्शी हुई इस जिंदगी को, कहाँ ले जाऊं आसिफ ये बतादे
तबीयत कुछ बनाना चाहती है, मुक़द्दर कुछ बनाना चाहता है

मीर तकी मीर

इश्क़ में न खौफ़-ओ-खतर चाहिए
जान के देने को जिगर चाहिए
शर्त सलीका है हर इक उम्र में
ऐब भी करने को हुनर चाहिए

खालिलुर्रहमान आज़मी

भला हुआ कि कोई और मिल गया तुम सा
वगरना हम भी किसी दिन तुम्हें भुला देते

मशहर बदायूंनी

अजब वो शहर-ए-सितमगर था छोड़ कर जिसको
बहुत ख़ुशी हुई और फिर बहुत मलाल हुआ

जान एलिया

मुझको आदत है रूठ जाने की
आप मुझको मना लिया कीजे

तहसीन सरबरी

हमारे घर में यूँ तो क्या नहीं है
बस इतना है कोई रहता नहीं है

शंभू शिखर

सोचता हूँ कि ये दुनिया क्या है
वो पराया है तो अपना क्या है
शाम से चाँद साथ है मेरे
आज आकाश में निकला क्या है

मिर्जा असदुल्लाह खाँ गालिब

बाज़ीचा-ए-अतफाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे
इमां मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ़्र
काबा मेरे पीछे है क़लीसा मेरे आगे
मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे
ये देख कि क्या रंग है तेरा मेरे आगे

मीर तकी मीर

देख तो दिल कि जां से उठता है
ये धुआं सा कहाँ से उठता है
यूं उठे आह उस गली से हम
जैसे कोई जहाँ से उठता है

अज्ञात

ऐलान कर रहे हैं बड़ी आजिज़ी से हम
डरते नहीं खुदा के अलावा किसी से हम
वो शायरी जो मीर को रोटी न दे सकी
दौलत कमा रहे हैं उसी शायरी से हम

अज्ञात

देख लेना एक दिन तनहा खड़े रह जाओगे
छोड़ दो तुम दोस्तो को आजमाने का हुनर

unknown

LAUGHING FACES
DOES NOT MEAN THAT
THERE IS ABSENCE OF
SORROW
BUT IT MEANS THAT
THAY HAVE
THE ABILITY
TO DEAL WITH THEM....

ओशो का गद्य-काव्य

अँधेरे के साथ कुछ भी नहीं किया सकता
जो भी हो सकता है वो प्रकाश के ही साथ संभव है
अन्धकार मिटाना है तो प्रकाश उत्पन्न कर दो
अन्धकार फैलाना है तो प्रकाश समाप्त कर दो.....
वैसे ये कहना भी भाषा की विवशता है
कि अन्धकार चला गया
जो था ही नहीं वो जा कैसे सकता है
इसका अर्थ है
कि हम अन्धकार के अस्तित्व को
स्वीकार कर रहे हैं

अजीम शाकरी

खुदाया यूँ भी हो कि उसके हाथों क़त्ल हो जाऊं
वही इक ऐसा कातिल है जो पेशावर नहीं लगता
मुहब्बत तीर है और तीर बातिन छेद देता है
मगर नीयत ग़लत हो तो निशाने पर नहीं लगता

अजीम शाकरी

मुसलसल हँस रहा हूँ गा रहा हूँ
तेरी यादों से दिल बहला रहा हूँ
किनारे मेरी जानिब बढ़ रहे हैं
मगर मैं हूँ कि डूबा जा रहा हूँ

हुमैरा रहमान

वो लम्हा जब मेरे बच्चे ने माँ कहा मुझको
मैं एक शाख से कितना घना दरख़्त हुई

जगपाल सिंह सरोज

देख पालकी जिस दुल्हन की बहक गया हर एक बाराती
जिसके द्वार उठेगा घूंघट जाने उस पर क्या बीतेगी
एक बार सपने में छूकर तन-मन-चंदन-वन कर डाला
जो हर रोज़ छुआ जाएगा उस पागल पर क्या बीतेगी

अज्ञात

हमेशा तंगदिल दानिशवरों से फ़ासला रखना
मणी मिल जाये तो क्या सांप डसना छोड़ देता है

मज़हर इमाम

दिल अकेला है बहुत लाला-ए-सहारा की तरह
तुम ने भी छोड़ दिया है मुझे दुनिया की तरह

निश्तर खानखाही

कौन सी आफतज़दा रूहें लिए मिलते थे हम
गुफ्तगू औरों की थी आपस में तल्खी आ गयी

शंभू शिखर

चलो इक-दूसरे को बाँट लें हम
मैं मैं हो जाऊं तुम तुम हो जाओ

भावेश पाठक

क्या सोच के हैरां हो, क्या चीज़ है ये आँधी
इक सरफिरी हवा का औकात पे आ जाना

अज्ञात

एक कमरे के मकानों का करिश्मा देखिए
वक़्त से पहले जवां होने लगी हैं बेटियाँ

इब्न-ए-इंशा

अपने हमराह जो आते हो इधर से पहले
दश्त पड़ता है मियाँ इश्क में घर से पहले
जी बहलता ही नहीं अब कोई सा'अत कोई पल
रात ढलती ही नहीं चार पहर से पहले

जिगर मुरादाबादी

हमें मालूम है हम से सुनो महशर में क्या होगा
सब उस को देखते होंगे वो हमको देखता होगा
जहन्नुम हो कि जन्नत जो भी होगा फैसला होगा
ये क्या कम है हमारा और उस का सामना होगा

फैज़ अहमद फैज़

हम एक उम्र से वाकिफ़ हैं अब न समझाओ
कि लुत्फ़ क्या है मेरे महरबान सितम क्या है

गोपाल दास नीरज

बात अब करते हैं कतरे भी समंदर की तरह
लोग ईमान बदलते हैं केलेन्डर की तरह

राही मासूम रज़ा

गम तो इसका है कि ये अहद-ए-वफ़ा टूट गया
बेवफा कोई भी हो तुम न सही हम ही सही

मंगल नसीम

तोड़ ले जाते हैं पत्तों को गुज़रने वाले
इतनी नीची मेरे एहसास की डाली क्यों है

अज्ञात

ज़िन्दगी जिसका बड़ा नाम सुना जाता है
एक कमज़ोर सी हिचकी के सिवा कुछ भी नहीं

सागर त्रिपाठी

सियासत भी अजूबी बोलती है
रियाकारों की तूती बोलती है
ज़माना बेरहम है कुछ भी बोले
गिला ये है कि तू भी बोलती है

अज्ञात

सज़ा ये है कि नींदें छीन लीं दोनों की आँखों से
ख़ता ये थी कि इन आँखों ने मिलकर ख़्वाब देखे थे

बशीर बद्र

घरों पे नाम थे नामों के साथ ओहदे थे
बहुत तलाश किया एक आदमी न मिला
ख़ुदा की इतनी बड़ी क़ायनात में हमने
बस एक शख्स को चाहा हमें वही न मिला

मुनव्वर राणा

किसी को घर मिल हिस्से में या कोई दुकाँ आई
मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई

मिर्ज़ा असदुल्लाह खाँ ग़ालिब

बाज़ीचा-ए-अतफाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे
मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे
ये देख कि क्या रंग है तेरा मेरा आगे

अज्ञात

जब से टूटा है चमकता हुआ तारा मेरा
कोई रिश्ता ही नहीं जैसे तुम्हारा-मेरा
तुम नहीं हो तो मज़े रूठ गए हैं मेरे
हो ही जाता है बहरहाल गुज़ारा मेरा
अब तो आवाज़ पे आवाज़ दिए जाता हूँ
काम करता था कभी एक इशारा मेरा

मंज़र भोपाली

कोई बचने का नहीं साबका पता जानती है
किस जगह आग लगानी है हवा जानती है
आँधियाँ ज़ोर लगायें भी तो होता है
गुल हिलाने का हुनर बाद-ए-सबा जानती है

अज्ञात

ज़रा सा नाम और तारीफ़ पाकर
हम अपने कद से बढ़कर बोलते हैं
संभल कर गुफ़्तगू करना बुजुर्गों
कि बच्चे अब पलट कर बोलते हैं

अज्ञात

मेरी ज़िन्दगी इक मुसलसल सफ़र है
जो मंज़िल पे पहुँचा तो मंज़िल बढ़ा दी

परवीन शाकिर

मुझको उस से न थी कुछ और तलब
बस मेरे प्यार कि इज़्ज़त करता

नजीर अकबराबादी

सहरा में मेरे हाल पे कोई भी न रोया
ग़र फूट के रोया तो मेरे पाँव का छाला

राजगोपाल सिंह

कभी खुशबू कभी पत्ते कभी तिनके उड़ा लाई
हमारे घर तो आँधी भी कभी तनहा नहीं आई

मंगल नसीम

माना हमारे हक़ में बहुत कुछ हुआ मगर
जैसा कहा था आपने वैसा कहाँ हुआ
हमने ग़ज़ल को सींचा लहू से तमाम उम्र
लेकिन ग़ज़ल में ज़िक्र हमारा कहाँ हुआ

परवीन शाकिर

मैं उसकी दस्तरस में हूँ मगर वो
मुझे मेरी रज़ा से माँगता है

अज्ञात

इन पहाड़ों को न हो जाये बुलंदी पे गुरूर
पत्थरों तुमको समझ हो तो लुढ़कते रहना

अज्ञात

लोग अच्छे हैं बहुत दिल में उतर जाते हैं
मगर कमी है तो यही एक कि मर जाते हैं

मंगल नसीम

नसीम प्यार ज़रूरी है हर बशर के लिए
वो एक पल के लिए हो कि उम्र भर के लिए
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