कृष्ण गोपाल विद्यार्थी

आपसे प्यार हो गया कैसे
ये चमत्कार हो गया कैसे
प्यार को मैं गुनाह कहता था
मैं गुनाहगार हो गया कैसे

बालस्वरूप राही

कटीले शूल भी दुलरा रहे है पाँव को मेरे
कहीं तुम पंथ पर पलकें बिछाए तो नहीं बैठीं

हवाओं में न जाने आज क्यों कुछ-कुछ नमी सी है
डगर की उष्णता में भी न जाने क्यों कमी सी है
गगन पर बदलियाँ लहरा रहीं हैं श्याम-आँचल सी
कहीं तुम नयन में सावन छिपाए तो नहीं बैठीं

अमावस की दुल्हन सोयी हुई है अवनि से लगकर
न जाने तारिकायें बाट किसकी जोहतीं जगकर
गहन तम है डगर मेरी मगर फिर भी चमकती है
कहीं तुम द्वार पर दीपक जलाए तो नहीं बैठीं

हुई कुछ बाट ऎसी फूल भी फीके पड़े जाते
सितारे भी चमक पर आज तो अपनी न इतराते
बहुत शरमा रहा है बदलियों की ओट में चन्दा
कहीं तुम आँख में काजल लगाए तो नहीं बैठीं

नागार्जुन

कालिदास! सच-सच बतलाना
इंदुमती के मृत्यु शोक से
अज रोया या तुम रोये थे
कालिदास! सच-सच बतलाना

शिवजी की तीसरी आँख से
निकली हुई महाज्वाला से
घृतमिश्रित सूखी समिधा सम
कामदेव जब भस्म हो गया
रति का क्रंदन सुन आँसू से
तुमने ही तो दृग धोये थे
कालिदास! सच-सच बतलाना
रति रोयी या तुम रोये थे?

वर्षा ऋतु की स्निग्ध भूमिका
प्रथम दिवस आषाढ़ मास का
देख गगन में श्याम घन-घटा
विधुर यक्ष का मन जब उचटा
खड़े-खड़े जब हाथ जोड़कर
चित्रकूट के सुभग शिखर पर
उस बेचारे ने भेजा था
जिनके द्वारा ही संदेशा
उन पुष्करावर्त मेघों का
साथी बनकर उड़ने वाले
कालिदास! सच-सच बतलाना
पर पीड़ा से पूर-पूर हो
थक-थक कर और चूर-चूर हो
अमल-धवल गिरि के शिखरों पर
प्रियवर! तुम कब तक सोये थे?
रोया यक्ष या तुम रोये थे?
कालिदास! सच-सच बतलाना

राम अवतार त्यागी

आने पर मेरे बिजली-सी कौंधी सिर्फ तुम्हारे दृग में
लगता है जाने पर मेरे सबसे अधिक तुम्हीं रोओगे

मैं आया तो चारण जैसा
गाने लगा तुम्हारा आँगन
हंसता द्वार, चहकती ड्योढी
तुम चुपचाप खड़े किस कारण
मुझको द्वारे तक पहुंचाने
सब तो आये तुम्हीं न आये
लगता है एकाकी पथ पर
मेरे साथ तुम्हीं होओगे

मौन तुम्हारा प्रश्न-चिन्ह है
पूछ रहे शायद कैसा हूँ
कुछ-कुछ चातक से मिलता हूँ
कुछ-कुछ बादल के जैसा हूँ
मेरा गीत सुना सब जागे
तुमको जैसे नींद आ गयी
लगता मौन प्रतीक्षा में तुम
सारी रात नहीं सोओगे

तुमने मुझे अदेखा करके
संबंधों की बात खोल दी
सुख के सूरज की आँखों में
काली-काली रात घोल दी
कल को यदि मेरे आँसू की
मंदिर में पड़ गयी ज़रूरत
लगता है आँचल को अपने
सबसे अधिक तुम्हीं धोओगे

परिचय से पहले ही बोलो
उलझे किस ताने-बाने में
तुम शायद पथ देख रहे थे
मुझको देर हुई आने में
जग भर ने आशीष उठाये
तुमने कोई शब्द न भेजा
लगता तुम भी मन की बगिया में
गीतों का बिरवा बोओगे

गोपालदास नीरज

स्वप्न झरे फूल से
मीत चुभे शूल से
लुट गए सिंगार सभी बाग़ के बबूल से
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गयी
पाँव जब तलक उठें कि ज़िन्दगी फिसल गयी
पात-पात झर गए कि शाख-शाख जल गयी
चाह तो सकी निकल न पर उमर निकल गयी
गीत अश्क़ बन गए
छंद हो दफ़न गए
साथ के सभी दिए, धुआँ-धुआँ पहन गए
और हम झुके-झुके
मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे

क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा
क्या सरूप था कि देख आइना सिहर उठा
इस तरफ़ ज़मीन और आसमां उधर उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा
एक दिन मगर यहाँ
ऐसी कुछ हवा चली
लुट गयी कली-कली कि घुट गयी गली-गली
और हम लुटे-लुटे
वक़्त से पिटे-पिटे
साँस की शराब का खुमार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे

हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की संवार दूं
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूं
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूं
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमि पर उतार दूं
हो सका न कुछ मगर
शाम बन गयी सहर
वह उठी लहर कि ढह गए किले बिखर-बिखर
और हम डरे-डरे
नीर नयन में भरे
ओढ़कर कफ़न पड़े मज़ार देखते रहे
कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे

माँग भर चली कि एक जब नयी-नयी किरण
ढोलकें ढुमुक उठीं ठुमुक उठे चरण-चरण
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन
गाँव सब उमड़ पडा बहक उठे नयन-नयन
पर तभी ज़हर भारी
गाज एक वह गिरी
पुंछ गया सिन्दूर तार-तार हुई चूनरी
और हम अजान से
दूर के मकान से
पालकी लिए हुए कहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे
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