बालस्वरूप राही

कटीले शूल भी दुलरा रहे है पाँव को मेरे
कहीं तुम पंथ पर पलकें बिछाए तो नहीं बैठीं

हवाओं में न जाने आज क्यों कुछ-कुछ नमी सी है
डगर की उष्णता में भी न जाने क्यों कमी सी है
गगन पर बदलियाँ लहरा रहीं हैं श्याम-आँचल सी
कहीं तुम नयन में सावन छिपाए तो नहीं बैठीं

अमावस की दुल्हन सोयी हुई है अवनि से लगकर
न जाने तारिकायें बाट किसकी जोहतीं जगकर
गहन तम है डगर मेरी मगर फिर भी चमकती है
कहीं तुम द्वार पर दीपक जलाए तो नहीं बैठीं

हुई कुछ बाट ऎसी फूल भी फीके पड़े जाते
सितारे भी चमक पर आज तो अपनी न इतराते
बहुत शरमा रहा है बदलियों की ओट में चन्दा
कहीं तुम आँख में काजल लगाए तो नहीं बैठीं

2 comments:

MAYUR said...

ऐसे ही पढ़ते रहे
धन्यवाद्
अपनी अपनी डगर sarparast.blogspot.com

हरकीरत ' हीर' said...

हवाओं में न जाने आज क्यों कुछ-कुछ नमी सी है
डगर की उष्णता में भी न जाने क्यों कमी सी है
गगन पर बदलियाँ लहरा रहीं हैं श्याम-आँचल सी
कहीं तुम नयन में सावन छिपाए तो नहीं बैठीं

Waah bhot sunder paktiyan...!!

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