परवीन शाक़िर

अक़्स-ए-ख़ुशबू हूँ बिखरने से न रोके कोई
और बिखर जाऊँ तो मुझको न समेटे कोई
काँप उठती हूँ मैं ये सोच के तनहाई में
मेरे चेहरे पे तिरा नाम न पढ़ ले कोई
जिस तरह ख़्वाब मेरे हो गए रेज़ा-रेज़ा
इस तरह से न कभी टूट के बिखरे कोई
अब तो इस राह से वो शख़्स गुज़रता भी नहीं
अब किस उम्मीद पे दरवाजे से झाँके कोई
कोई आहट, कोई आवाज़, कोई छाप नहीं
दिल की गलियाँ बड़ी सुनसान हैं आए कोई
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