सुनीता जैन

जाने कब शाम हो जाए
प्रणाम यह, अंतिम प्रणाम हो जाए

मैं स्वीकार करती हूँ
कि तुमसे
तुम्हारे सलोनेपन
तुम्हारे मन की गहराई
तुम्हारे भीतर के आलोक से
बावरी हदों तक
प्यार करती हूँ

मेरे पास कुछ भी नहीं है सफ़ाई
न अपने हल्के पलड़े पर
रखने का बाट कोई
फिर भी याद है
कि जब याद से भी छोटे पाँव थे
मैं खो जाया करती थी
नहर किनारे बाग़ में

तुम पूछतीं
कहाँ गई थी?
तब भी मेरे तोतले बोलों में नहीं थी
कोई सफ़ाई
आज कह रही मैं कि, माँ
मैं ढूंढती थी तब भी तुम्हें
तुम्हें, तुम्हें ही।

1 comment:

Asha Joglekar said...

बहुत सुंदर ।

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