LAUGHING FACES
DOES NOT MEAN THAT
THERE IS ABSENCE OF
SORROW
BUT IT MEANS THAT
THAY HAVE
THE ABILITY
TO DEAL WITH THEM....
ओशो का गद्य-काव्य
अँधेरे के साथ कुछ भी नहीं किया सकता
जो भी हो सकता है वो प्रकाश के ही साथ संभव है
अन्धकार मिटाना है तो प्रकाश उत्पन्न कर दो
अन्धकार फैलाना है तो प्रकाश समाप्त कर दो.....
वैसे ये कहना भी भाषा की विवशता है
कि अन्धकार चला गया
जो था ही नहीं वो जा कैसे सकता है
इसका अर्थ है
कि हम अन्धकार के अस्तित्व को
स्वीकार कर रहे हैं
जो भी हो सकता है वो प्रकाश के ही साथ संभव है
अन्धकार मिटाना है तो प्रकाश उत्पन्न कर दो
अन्धकार फैलाना है तो प्रकाश समाप्त कर दो.....
वैसे ये कहना भी भाषा की विवशता है
कि अन्धकार चला गया
जो था ही नहीं वो जा कैसे सकता है
इसका अर्थ है
कि हम अन्धकार के अस्तित्व को
स्वीकार कर रहे हैं
अजीम शाकरी
खुदाया यूँ भी हो कि उसके हाथों क़त्ल हो जाऊं
वही इक ऐसा कातिल है जो पेशावर नहीं लगता
मुहब्बत तीर है और तीर बातिन छेद देता है
मगर नीयत ग़लत हो तो निशाने पर नहीं लगता
वही इक ऐसा कातिल है जो पेशावर नहीं लगता
मुहब्बत तीर है और तीर बातिन छेद देता है
मगर नीयत ग़लत हो तो निशाने पर नहीं लगता
अजीम शाकरी
मुसलसल हँस रहा हूँ गा रहा हूँ
तेरी यादों से दिल बहला रहा हूँ
किनारे मेरी जानिब बढ़ रहे हैं
मगर मैं हूँ कि डूबा जा रहा हूँ
तेरी यादों से दिल बहला रहा हूँ
किनारे मेरी जानिब बढ़ रहे हैं
मगर मैं हूँ कि डूबा जा रहा हूँ
जगपाल सिंह सरोज
देख पालकी जिस दुल्हन की बहक गया हर एक बाराती
जिसके द्वार उठेगा घूंघट जाने उस पर क्या बीतेगी
एक बार सपने में छूकर तन-मन-चंदन-वन कर डाला
जो हर रोज़ छुआ जाएगा उस पागल पर क्या बीतेगी
जिसके द्वार उठेगा घूंघट जाने उस पर क्या बीतेगी
एक बार सपने में छूकर तन-मन-चंदन-वन कर डाला
जो हर रोज़ छुआ जाएगा उस पागल पर क्या बीतेगी
इब्न-ए-इंशा
अपने हमराह जो आते हो इधर से पहले
दश्त पड़ता है मियाँ इश्क में घर से पहले
जी बहलता ही नहीं अब कोई सा'अत कोई पल
रात ढलती ही नहीं चार पहर से पहले
दश्त पड़ता है मियाँ इश्क में घर से पहले
जी बहलता ही नहीं अब कोई सा'अत कोई पल
रात ढलती ही नहीं चार पहर से पहले
जिगर मुरादाबादी
हमें मालूम है हम से सुनो महशर में क्या होगा
सब उस को देखते होंगे वो हमको देखता होगा
जहन्नुम हो कि जन्नत जो भी होगा फैसला होगा
ये क्या कम है हमारा और उस का सामना होगा
सब उस को देखते होंगे वो हमको देखता होगा
जहन्नुम हो कि जन्नत जो भी होगा फैसला होगा
ये क्या कम है हमारा और उस का सामना होगा
सागर त्रिपाठी
सियासत भी अजूबी बोलती है
रियाकारों की तूती बोलती है
ज़माना बेरहम है कुछ भी बोले
गिला ये है कि तू भी बोलती है
रियाकारों की तूती बोलती है
ज़माना बेरहम है कुछ भी बोले
गिला ये है कि तू भी बोलती है
बशीर बद्र
घरों पे नाम थे नामों के साथ ओहदे थे
बहुत तलाश किया एक आदमी न मिला
ख़ुदा की इतनी बड़ी क़ायनात में हमने
बस एक शख्स को चाहा हमें वही न मिला
बहुत तलाश किया एक आदमी न मिला
ख़ुदा की इतनी बड़ी क़ायनात में हमने
बस एक शख्स को चाहा हमें वही न मिला
मुनव्वर राणा
किसी को घर मिल हिस्से में या कोई दुकाँ आई
मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई
मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई
मिर्ज़ा असदुल्लाह खाँ ग़ालिब
बाज़ीचा-ए-अतफाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे
मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे
ये देख कि क्या रंग है तेरा मेरा आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे
मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे
ये देख कि क्या रंग है तेरा मेरा आगे
अज्ञात
जब से टूटा है चमकता हुआ तारा मेरा
कोई रिश्ता ही नहीं जैसे तुम्हारा-मेरा
तुम नहीं हो तो मज़े रूठ गए हैं मेरे
हो ही जाता है बहरहाल गुज़ारा मेरा
अब तो आवाज़ पे आवाज़ दिए जाता हूँ
काम करता था कभी एक इशारा मेरा
कोई रिश्ता ही नहीं जैसे तुम्हारा-मेरा
तुम नहीं हो तो मज़े रूठ गए हैं मेरे
हो ही जाता है बहरहाल गुज़ारा मेरा
अब तो आवाज़ पे आवाज़ दिए जाता हूँ
काम करता था कभी एक इशारा मेरा
मंज़र भोपाली
कोई बचने का नहीं साबका पता जानती है
किस जगह आग लगानी है हवा जानती है
आँधियाँ ज़ोर लगायें भी तो होता है
गुल हिलाने का हुनर बाद-ए-सबा जानती है
किस जगह आग लगानी है हवा जानती है
आँधियाँ ज़ोर लगायें भी तो होता है
गुल हिलाने का हुनर बाद-ए-सबा जानती है
अज्ञात
ज़रा सा नाम और तारीफ़ पाकर
हम अपने कद से बढ़कर बोलते हैं
संभल कर गुफ़्तगू करना बुजुर्गों
कि बच्चे अब पलट कर बोलते हैं
हम अपने कद से बढ़कर बोलते हैं
संभल कर गुफ़्तगू करना बुजुर्गों
कि बच्चे अब पलट कर बोलते हैं
मंगल नसीम
माना हमारे हक़ में बहुत कुछ हुआ मगर
जैसा कहा था आपने वैसा कहाँ हुआ
हमने ग़ज़ल को सींचा लहू से तमाम उम्र
लेकिन ग़ज़ल में ज़िक्र हमारा कहाँ हुआ
जैसा कहा था आपने वैसा कहाँ हुआ
हमने ग़ज़ल को सींचा लहू से तमाम उम्र
लेकिन ग़ज़ल में ज़िक्र हमारा कहाँ हुआ
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