इब्न-ए-इंशा

अपने हमराह जो आते हो इधर से पहले
दश्त पड़ता है मियाँ इश्क में घर से पहले
जी बहलता ही नहीं अब कोई सा'अत कोई पल
रात ढलती ही नहीं चार पहर से पहले

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